रायपुर संभाग में धान खेत के खरपतवारों का भौगोलिक विष्लेषण

 

डाॅ. राजेष्वर कुमार वर्मा1, सुश्री अंजनी पटेल2

1विभागाध्यक्ष, स्नातकोत्तर भूगोल विभाग, सेठ फूलचंद अग्रवाल महाविद्यालय, नवापारा

जिला - रायपुर  (छग

2तकनीषियन, स्नातकोत्तर भूगोल विभाग, सेठ  फूलचंद  अग्रवाल  महाविद्यालय, नवापारा

जिला - रायपुर  (छग           

*Corresponding Author E-mail:  patelanjani28@gmail.com, verma25rajeshwar@gmail.com

ABSTRACT:

खरपतवार धान-फसल के अधिकतम उत्पादन में सर्वाधिक बाधक होते है। खरपतवार एवं धान-पौधों के मध्य स्थान, भूमि में उपलब्ध नमी, पोषक तत्वों एवं सूर्य -प्रकाष के लिए तीव्र प्रतिस्पर्धा होती है। धान-खेतों में विभिन्न प्रकार के अवांछित खरपतवार पाये जाते है। खरपतवारों का उद्गम, विकास एवं वितरण उच्चावच, मिट्टी, वर्षा, सिंचाई एवं धान की कृषि-विधि से प्रभावित होता है। खेत में खरपतवारों की उपस्थिति विभिन्न कीट -व्याधियों में एंकातर समांतर पोषक का कार्य करता है, जिससे उत्पादन लागत में वृद्वि होती है।

 

KEYWORDS: खरपतवार, धान-फसल

 


 

अध्ययन क्षेत्र

रायपुर संभाग छत्तीसगढ़ प्रदेष के मध्यपूर्व में 19015‘ से 21052’ उत्तरी अंक्षाॅष तथा 81025’ से 83038’ पूर्वी देषांतर के मध्य 21528 वर्ग किलोमीटर में विस्तृत है।

 

यह उपरी महानदी बेसिन का भाग है। षिवनाथ एवं खारून नदी संभाग की उत्तरी -पष्चिमी सीमा का निर्धारण करती है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार रायपुर संभाग की जनसंख्या 58,93,634 है। प्रषासनिक दृष्टि से संभाग रायपुर, धमतरी, महासमुंद, गरियाबंदएवं बलौदाबाजार जिले में विभक्त है।

 

 

अध्ययन का उद्देष्य

प्रस्तुत षोध का मुख्य उद्देष्य धान खेतों में पाये जाने वाले खरपतवारों के अभिलक्षण का परीक्षण कर खरपतवारों के वितरण पर भौगोलिक कारकों (उच्चावच, मिट्टी एवं वर्षा) के प्रभाव का विष्लेषण करना है। धान की विभिन्न कृषि -विधियों में खरपतवारों की मा़त्रा का आंकलन एवं धान के उत्पादन पर खरपतवारों के प्रभाव का मूल्यांकन करना है।

 

शोध परिकल्पना:

प्रस्तुत षोध निम्न परिकल्पनाओं पर आधारित है -

1ण्    खरपतवार की मात्रा एवं धरातल के उष्चावच के मध्य धनात्मक सह-संबंध होता है।

2ण्    खरपतवारों के वानस्पतिक विकास एवं मिट्टी की जलधारण क्षमता के मध्य ऋणात्मक सह-संबंध होता है।

3ण्    वर्षा, खरपतवार की मात्रा को नियंत्रित करती है।

4ण्    खरपतवारों के अंकुरण एवं विकास पर धान कीकृषि-विधि का प्रत्यक्ष प्रभाव होता है।

 

शोध -न्यादर्ष:

सर्वेक्षित ग्राम - रायपुर संभाग के 6 कृषि प्रदेष के 74 ग्राम

निदर्षन ईकाई - कृषक परिवार

सर्वेक्षित धान क्षेत्र - 5174.8 हेक्टेयर

सर्वेक्षित कृषक परिवार की संख्या- 1663 कृषक परिवार

 

धान खेत में खरपतवार:

खरपतवार धान -फसल के विकास एवं उत्पादन पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालते है। रायपुर संभाग के सर्वेक्षित धान-खेतों में मुख्य रूप से निम्न 10 खरपतवार पाये जाते है (सारणी क्रमांक 1)

 

 

सारणी क्रमांक - 1 रायपुर संभाग: खरपतवारों की ऊॅचाई एवं जीवन -काल

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अध्ययन क्षेत्र के धान-खेतों में बहु-वर्षीय खरपतवारों के अन्र्तगत करगा, दूबी, काॅसी एवं मोथा का वितरण अधिक है। बहु-वर्षीय खरपतवार अपना जीवन चक्र एक से अधिक वर्ष में पूरा करते है। इन खरपतवारों का प्रसार बीज, कंद, जड़ एवं षाखाओं द्वारा होता है। करगा 90 से 110 सेन्टीमीटर ऊॅचा, धान के पौधे के समान खरपतवार है। इसके सिरे में रेषा (सोंधा) होता है। करगा धान से पहले पक जाता है एवं फसल काटने से पहले झड़ जाता है। सर्वेक्षित सभी धान-खेतों में करगा खरपतवार का वितरण मिलता है। दूबी 10 से 15 सेन्टीमीटर ऊॅची होती है। यह खेत में लता के समान फैल जाती है इसकी प्रत्येक गांठ से जड़ निकलती है। काॅसी बूटे वाला खरपतवार है, इसका तना मजबूत तथा पत्तियाॅ धारे वाली होती है। काॅसी का वितरण खेतों के अपेक्षा मंेड़ों में अधिक होता है। मौथा 90 से 100 सेन्टीमीटर ऊॅचाई वाला बहु-वर्षीय खरपतवार है। सितंबर के प्रथम सप्ताह में मौथा के पौधों मंे लाल एवं भूरे रंग की बालियाॅ निकलती है।

 

 

एक वर्षीय खरपतवारों के अन्र्तगत मुख्य रूप से सांवा, चुहका, सोमना, नरजवां, भैसरा एवं मछरिया खरपतवारों का वितरण धान-खेतों में मिलता है। एक वर्ष में जीवन-चक्र पूर्ण करने वाले इन खरपतवारों का प्रसार मूलतः बीजों के द्वारा होता है। सांवा हरे रंग की छोटी पत्तियों वाली लगभग 90 सेन्टीमीटर ऊॅचा खरपतवार है। इसका अंकुरण धान के साथ-साथ होता है। चुहका खरपतवार की ऊॅचाई 30 से 40 सेन्टीमीटर होती है।चुहका का पौधा कोमल एवं ऊपर से बाली युक्त होता है, जिसमें फल लगते है।

 

धान-पौधे के बराबर जीवन-काल वाला यह खरपतवार धान-पौधों के जड़ों के विकास में बाधक होता है। सोमना खरपतवार की पत्तियाॅ नुकिली होती है। यह लता के समान फैलती है। इसका तना मुलायम एवं पौधों का रंग हरा होता है। भैसरा हरे रंग की गुच्छेदार नुकिली पत्तियों वाला खरपतवार है, इसकी जडे़ं गहरी होती है। मछरिया खरपतवार की पत्तियाॅ मेथी के पत्तियों के समान होती है। इसका जीवन काल 100 से 130 दिनों का होता है।

 

खरपतवार को प्रभावित करने वाले कारक

खरपतवारों का उद्गम एवं विकास उष्चावच,मिट्टी एवं धान की कृषि-विधि से प्रभावित होता है। वर्षा एवं सिंचाई खरपतवारों की मात्रा को नियंत्रित करने वाले प्रमुख कारक है।

 

 

(1) उच्चावच एवं खरपतवार:

धरातल के उष्चावच एवं खरपतवारों की मात्रा के मध्य धनात्मक सह -संबंध होता है। सर्वेक्षित धान खेतों की स्थिति के आधार पर तीन उच्चावच वर्गो क्रमषः 1.निम्न उच्चावच, 2. मध्य उच्चावच, 3. उच्च उच्चावच में रखा गया है (सारणी क्रमांक 2)

 

सारणी क्रमांक 2 रायपुर संभाग: उश्चावच एवं खरपतवार

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निम्न उच्चावच से तात्पर्य धरातल के निचले भू-भाग से है। संभाग में कुल सर्वेक्षित धान-क्षेत्र में 41ण्67 प्रतिषत क्षेत्र की स्थिति निम्न उष्चावच के अंतर्गत है। खेत में ऊॅचे-ऊॅचे मेड़ एवं अत्यधिक जलधारण क्षमता निम्न उष्चावच वाले क्षेत्र की विषेषता होती है। यहां मुख्य रूप से करगा, काॅसी, दूबी, सोमना, एवं मछरिया खरपतवारों का वितरण मिलता है। धान-खेतों में इन खरपतवारों की मात्रा (सघनता) अपेक्षाकृत कम होती है। निंदाई नहीं करने की दषा में धान के कुल उत्पादन में 30 से 70 प्रतिषत तक की कमी का आंकलन किया गया है। मध्यम उच्चावच की स्थिति उच्च एवं निम्न उच्चावच के मध्य होती है। मध्यम उच्चावच के अंतर्गत 38.72 प्रतिषत धान क्षेत्र है। यहां मुख्यतः सांवा, दूबी, सोमना, चुहका, करगा, काॅसी एवं भैसरा खरपतवारों का वितरण मिलता है। अल्प वर्षा की दषा में मध्यम जलधारण क्षमता के कारण इन खरपतवारों का सर्वाधिक विकास होता है। जबकि पर्याप्त वर्षा होने पर खरपतवारों की मात्रा सामान्य रहती है। निंदाई नहीं करने की दषा में धान के उत्पादन में 60से 85 प्रतिषत की कमी आंकी गयी

उष्च उष्चावच में स्थित 19.61 प्रतिषत धान क्षेत्र में तीव्र ढ़ाल एवं जल रिसाव के कारण वर्षा का पानी ठहर नहीं पाता, खेत में मेंड़ की ऊॅचाई भी कम होती है। खेत के जलस्तर में कमी एवं भूमि की कम जलधारण क्षमता के कारण चुहका, नरजवां, सांवा, सोमना, करगा, भैसरा एवं मौथा खरपतवारों के विकास के लिए अनुकूल दषा निर्मित हो जाती है। उष्च उष्चावच में स्थित धान-खेतों में इन खरपतवारांे की मात्रा (सघनता) सर्वाधिक होती है। निंदाई नहीं करने की दषा में धान के उत्पादन में 70 से 95 प्रतिषत तक की कमी का आंकलन किया गया है।

 

(2) मिट्टी एवं खरपतवार:

मिट्टीयाॅं खरपतवारों के अंकुरण, विकास एवं सघनता को प्रभावित करने वाली महत्वपूर्ण कारक है। संभाग के सर्वेक्षित ग्रामों में स्थानिय स्तर पर मिट्टयों के वितरण में विविधता है (सारणी क्रमांक 3)

 

 

सारणी क्रमांक 3 रायपुर संभाग: मिट्टी एंव खरपतवार

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जिले में सर्वेक्षित धान क्षेत्र का 13 प्रतिषत भाग भाठा मिट्टी (म्दजपेवस) युक्त धान खेतों का है। भाठा मिट्टी में खरपतवारों की संख्या एवं सघनता सर्वाधिक होती है। जलधारण क्षमता कम होने के कारण चुहका, सांवा, सोमना, करगा एवं नरजवां खरपतवारों का विकास तीव्र गति से होता है। भाठा मिट्टी वाले धान-खेतों में रिसाव के कारण जल की मात्रा कम होते ही चुहका खरपतवार का अत्यधिक विकास होता है। सांवा खरपतवार खेत में कोपर (पाटा) चलाने के बाद भी नहीं गलता (सड़ता) भाठा मिट्टी वाले धान- खेतों में षीघ्र (90 दिन से कम)पकने वाली धान-प्रजातियों की कृषि होने के कारण खरपतवारों का निंदाई में समय-आयाम प्रमुख समस्या होती है।

 

मटासी मिट्टी (प्दबमचजपेवस) युक्त 28 प्रतिशत धान-क्षेत्रों में मुख्य रूप से करगा, सांवा, चुहका, भैसरा, सोमना एवं काॅसी खरपतवारों का वितरण मिलता है। चुहका एवं सांवा खरपतवार की मात्रा भाठा मिट्टी वाले धान-खेतों से कम होती है। मटासी मिट्टी की कम जलधारण क्षमता धान-पौधे के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। इस मिट्टी में पोटाष की मात्रा खरपतवारों के आपेक्षिक वृद्वि (धान की अपेक्षा) में सहायक कारक होता है। अतः मटासी मिट्टी युक्त धान-खेतों में खरपतवारों का विकास एवं मात्रात्मक वृद्वि अधिक होती है।

 

डोरसा मिट्टी युक्त 19 प्रतिषत धान-खेतों में करगा, सोमना, काॅसी एवं मछरिया खरपतवारों की वितरण है। डोरसा मिट्टी वाले धान खेतों में खरपतवारों की मात्रा (सघनता)सामान्य होती है। धान के पश्चात उतेरा फसलों की कृषि के फलस्वरूप खेत की सफाई के कारण खरपतवार की मात्रा नियंत्रित रहती है।

 

कन्हार मिट्टी (टमतजपेवस) वाले धान-खेतों में करगा, दूबी, सोमना, एवं काॅसी खरपतवार का वितरण मिलता है। कन्हार मिट्टी की उच्च जलधारण क्षमता एवं निम्न उच्चावच वाले क्षेत्र में स्थिति के कारण खेत में जलस्तर पर्याप्त बना रहता हैै। यह स्थिति चुहका, सांवा, नरजवां एवं मौथा आदि खरपतवारों के विकास में बाधक होती है। अतः कन्हार मिट्टी युक्त धान-खेतों में खरपतवारों की संख्या एवं सघनता कम होती है।

(3) वर्षा एवं खरपतवार:

वर्षा खरपतवारों की मात्रा को नियंत्रित करती है। वर्षा की प्रकृति मानसूनी होने के कारण प्रायः वर्षा के स्थानिय एवं कालिक-वितरण में अनिष्चितता होती है। पर्याप्त वर्षा होने की दषा में खेत में पाटा (कोपर) चलाने से खरपतवार विषेषकर सांवा गलकर नष्ट हो जाता है। धान-खेत में जलस्तर 13 से 15 सें.मी. होने पर चुहका नामक खरपतवार का विकास अवरूद्व हो जाता है। वर्षा कम होने से खरपतवारों के विकास में तीव्रता जाती है,एवं मात्रात्मक वृद्वि भी सर्वाधिक होती है (सारणी क्रमांक 4)

 

सारणी क्रमांक -4 रायपुर संभाग: वर्षा की मात्रा एवं खरपतवार

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अध्ययन क्षेत्र में वृष्टि-छाया से प्रभावित बलौदाबाजार, सिमगा, भाटापारा, तिल्दा, कसडोल एवं बिलाईगढ़ में वर्षा का वार्षिक औसत 750 मिमी (न्यूनतम) है। यहां धान- खेतों में चुहका, सोमना, नरजवां, सांवा एवं मौथा खरपतवार अत्यधिक मात्रा में पाया जाता है। वर्षा की कमी बियासी एवं खरपतवारों की निंदाई प्रक्रिया को प्रभावित करता है। कम वर्षा में चुहका, सांवा एवं नरजवां खरपतवारों का वानस्पतिक विकास धान-पौधों की तुलना में तीव्र गति से होता है। खरपतवारों की निदाई नहीं होने की दषा में धान के उपज में 72 से 84 प्रतिषत तक की कमी आंकलन किया गया है।

 

कुरूद,फिंगेष्वर, गरियाबंद एवं सरायपाली विकासखण्डों में वर्षा का वार्षिक औसत सर्वाधिक 1150 मिमी. होने से यहां धान-खेतों में करगा, सोमना एवं दूबी खरपतवारों का वितरण मिलता है। वर्षा की अधिकता से सांवा, चुहका एवं नरजवां खरपतवार बियासी के बाद खेत में कोपर (पाटा) चलाने से मिट्टी में दबकर गल (सड़) जाते है। अतः यहां धान-खेतों में खरपतवार की संख्या एवं सघनता अपेक्षाकृत कम होती है।

 

धरसीवा, आरंग, धमतरी, नगरी, देवभोग एवं बसना विकासखण्डों में औसत वार्षिक वर्षा 950 मिमी. से 1150 मिमी के मध्य है। यहां धान-खेतों में मुख्य रूप से करगा, सोमना, काॅसी एवं मछरिया खरपतवारों की उपस्थिति अंाकी गयी है। महासमुंद, पलारी, पिथौरा एवं अभनपुर विकासखण्डों में औसत वार्षिक वर्षा (750.950 मिमी.) खरपतवारों के विकास के अनुकूल होने के कारण यहां धान-खेतों में सांवा, भैसरा, करगा, सोमना एवं काॅसी खरपतवार अधिक मात्रा में पाया जाता है। धान-खेत की निंदाई नहीं होने की दषा में धान के उत्पादन में 60 से 75 प्रतिषत तक की कमी का आंकलन किया गया है।

 

(4) सिंचाई एवं खरपतवार:

सिंचाई एवं खरपतवार के मध्य ऋणात्मक सह-संबंध होता है। सिंचाई की तीव्रता में वृद्वि के साथ-साथ खरपतवारों की संख्या एवं सघनता कम होती। यहां धान कृषि में नलकूप, नहर एवं तालाब सिंचाई के मुख्य साधन है। नलकूप नियंत्रित सिंचाई का सर्वोत्तम माध्यम है। इससे खेत में आवश्यकतानुसार सिंचाई संभव होती है। नलकूप सिंचित खेत में धान की गभोट अवस्था तक जलस्तर 13.15 सें.मी. बना रहता है। यह जलस्तर खरपतवारों के अंकुरण एवं विकास में बाधक होता है। नलकूप सिंचित खेत में बीज बोआई की विकसित विधि के परिणामस्वरूप खरपतवारों का उन्मूलन हो जाता है। खेत में कम मात्रा में करगा एवं सोमना खरपतवार पाया जाता है। नहरों द्वारा विस्तृत क्षेत्र(कुल सिंचित क्षेत्र का 78.15 प्रतिषत)में सिंचाई होती है। सिंचाई का स्तर सीमित एवं अल्पकालिक होने के कारण खेत में जलस्तर लम्बी अवधि तक पर्याप्त नहीं रह पाता, जिससे करगा, सोमना, मछरिया,नरजवां एवं दूबी खरपतवारों का विकास होने लगता है। नहर द्वारा सिंचित धान-खेतों में खरपतवारों की संख्या एवं सघनता (मात्रा) नलकूप सिंचित खेत से अधिक होती है।

 

मध्य सिंतबर के पष्चात अवर्षा की स्थिति में अंतिम विकल्प के रूप में तालाबों द्वारा धान-खेतों की सिंचाई की जाती हैै। तालाबों से सिंचाई करने में धान-खेत में पहले से उपस्थित करगा, सांवा, सोमना, चुहका एवं काॅसी खरपतवारों की वानस्पतिक वृद्वि अपेक्षाकृत तीव्र हो जाती है। परिणाम स्वरूप के धान के उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

 

(5) धान की कृषि-विधि एवं खरपतवार:

रायपुर संभाग में धान बोआई की मुख्य 4 विधियाॅ प्रचलित है यथा:1. खुर्रा, 2. बतर, 3. लेई एवं 4. रोपा विधि। वर्षा धान बोवाई की विधियों को प्रभावित करने वाला प्रमुख कारक है (सारणी क्रमांक 5)

 

 

 

सारणी क्रमांक - 5 रायपुर संभाग: धान की कृषि-विधि एवं खरपतवार

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खुर्रा विधि द्वारा धान की बोवाई कुल सर्वेक्षित धान क्षेत्र के 12.64 प्रतिषत में की जाती हैै। इस विधि का प्रयोग कम वर्षा वाले भागों में नमी के अधिकतम उपयोग के लिए किया जाता है। वर्षा प्रांरभ होते ही धान एवं खरपतवारों के बीजों में साथ साथ अंकुरण प्रारंभ हो जाता है। धान की अपेक्षा खरपतवारों की वानस्पतिक वृद्वि तीव्र होने के कारण खुर्रा विधि द्वारा बोवाई किये गये खेत में करगा, सांवा, दूबी , चुहका, काॅसी, सोमना एवं मौथा खरपतवारों की मात्रा अन्य विधियों की तुलना में सर्वाधिक होता है निंदाई नहीं होने की दषा मंे धान के उत्पादन में 70 से 85 प्रतिषत तक की कमी का आंकलन किया गया है।

 

सामान्य वर्षा वाले भागों में धान-बोवाई की बतर विधि सर्वाधिक प्रचलित है। कुल सर्वेक्षित धान क्षेत्र के 72.52 प्रतिषत में बतर विधि द्वारा बोवाई की गयी बतर विधि से बोये गये धान-खेत में करगा, दूबी, सोमना, नरजवां एवं भैसरा खरपतवारों का वितरण अधिक मात्रा में मिलता है। लगातार वर्षा होने की दषा में 3.72 प्रतिशत धान क्षेत्र में कृषक लेई विधि द्वारा धान बीजों की बोवाई करते है। लेई विधि में मचाई किये गये खेत में धान के अंकुरित बीजों का छिड़काव करते है। खेत में मचाई प्रक्रिया में पूर्व उपस्थित खरपतवार नष्ट हो जाते है। केवल बहुवर्षीय खरपतवार यथा-करगा, दूबी, काॅसी एवं मौथा सामान्य मात्रा में पाया जाता है।

 

पर्याप्त वर्षा सिंचाई की सुविधा वाले क्षेत्रों में बीज बोवाई की रोपा विधि प्रचलित है। सर्वेक्षित धान क्षेत्र के 11.12 प्रतिषत में रोपा विधि द्वारा धान की बोवाई की गयी रोपा विधि में खेतों में मचाई के कारण सांवा, चुहका, नरजवां, मछरिया, मौथा एवं भैसरा आदि खरपतवार गलकर मिट्टी में जीवांष की मात्रा मे वृद्वि करते हैं। रोपाई किये गये धान-खेतों में करगा एवं सोमना खरपतवार कम मात्रा में पाया गया। निंदाई नहीं होने की दषा में धान के उत्पादन में 15 से 30 प्रतिषत तक की कमी का आंकलन किया गया है।

 

(6) अन्य कारक

उपरोक्त कारकों के अतिरिक्त खेत की अधिवासों से दूरी, जोत का आकार एवं खेत के मेड़ में वनस्पति का प्रकार खरपतवारों के वितरण एवं सघनता को प्रभावित करता है। धान-खेतों के सर्वेक्षण में यह पाया गया कि अधिवासों के समीप स्थित धान- खेत में खरपतवारों की मात्रा (सघनता) दूरस्थ स्थित खेतों की तुलना में कम होता है। इसका प्रमुख कारण कृषक परिवार द्वारा घरेलू कार्य के पष्चात समीप स्थित खेत में खरपतवारों की निंदाई करना है। जोत के आकार में वृद्वि के साथ-साथ खेत में खरपतवार की मात्रा (सघनता) में वृद्वि होती जाती है। वृहत्त जोत आकार के खेत की तुलना में लघु जोत आकार के खेत में सघन निंदाई सरलता से हो जाती है। वृहत्त जोत आकार के खेत में निंदाई के दौरान खरपतवारों के छुट जाने की संभावना अधिक होती है। धान खेत में पाये जाने वाले विभिन्न प्रकार के पौधे एवं वृक्ष ग्रीष्मकाल में खरपतवारों को सूर्याताप से नष्ट होने से बचा लेते है। जिससे कि खेत में मौजूद खरपतवार वर्षाकाल में वानस्पतिक विकास कर फसल उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव डालते है।

 

निष्कर्ष

1-     प्रस्तुत षोध के निष्कर्ष निम्न है -

2-     समान भौतिक परिस्थितियों में धान की अपेक्षा खरपतवारों की वानस्पतिक विकास की तीव्र दर का प्रतिकूल प्रभाव धान के उत्पादन पर होता है।

3-     खरपतवारों की संख्या एवं सघनता का संबंध मिट्टी की जलधारण क्षमता से होता है। कन्हार मिट्टी युक्त खेतों की जलधारण क्षमता अधिक होने से खरपतवारों की संख्या एवं सघनता कम तथा भाठा मिट्टी वाले खेतों की जलधारण क्षमता कम होने के कारण खरपतवारों की संख्या एवं सघनता अधिक होती है।

4-     रायपुर संभाग मंे वृष्टि. छाया से प्रभावित बलौदाबाजार, सिमगा, भाटापारा, तिल्दा, कसडोल एवं बिलाईगढ़ विकासखण्डों के धान खेतों में अन्य कारकों की अपेक्षा अल्प वर्षा खरपतवारों के अत्यधिक विकास के लिए उत्तरदायी तथ्य हैं।

5-     नलकूप सिंचित धान खेतों में रोपा विधि से बीज बोवाई करने पर खरपरवार गलकर मिट्टी में जीवांष की मात्रा में वृद्वि करते है। यह धान कृषि के संविकास (ैनेजंपदंइसम क्मअमसवचउमदज) में धनात्मक कारक है।

 

REFERENCES:

1.      Aroleo, H.R.: “Rice In India” Eurosia Publishing House (P), New Delhi, 1986

2.      Chandraker, A.R.: “Application of Vacuum In Paddy Cultivation” IIG and IGU Commission Meeting on Land –Degradatio on Desertification, Vol. XXLL, 2001

3.      Dey, B.B.: “Preliminary Investigation of Paddy Field Weeds of Some Localities of North- Eastern India “Studies on Weed Control, Vol-2, No.3-4,1997.

4.      Henrich, J.: “Interaction Between Weed Control And Fertilizer Use In Rice Cultivation In Sierra-Leone, “Plant Research Development, vol . 18., 1983

5.      International Rice Research Institutes “Weed Reported Rice In India L” I.R.R.I. Publishing Company Philippines ,1989.

6.      Verma, R.K.: “Biodiversity and Energy Budget In Paddy Cultivation” Un Published Ph.D. Thesis, Pt.RSU, Raipur, 2005

 

 

 

Received on 30.10.2020         Modified on 20.11.2020

Accepted on 10.12.2020         © A&V Publication all right reserved

Int. J. Ad. Social Sciences. 2020; 8(4):139-144.